मंगलवार, 20 मई 2014

फिर से मेरा अपना कोई हाथ पकड़ने को कहता है



फिर से मेरा अपना कोई हाथ पकड़ने को कहता है

बरसों बीत गए थे मैंने रोक लिया था जिन भावों को 
आज अचानक मन से बाहर आने की कोशिश करते हैं 
असमंजस की रातों में जो सहमे थे चाहत के दीपक 
आज भयानक तूफां में भी जलने का साहस करते हैं ||

बरसों पहले  छोड़ गया था कोई अपना हाथ पकड़ कर 
फिर से मेरा अपना कोई हाथ पकड़ने को कहता है ||

सच्चाई की परछाई में चलने की कोशिश है फिर भी 
अवसर देख रही हैं अब भी जाने क्यूँ  झूटी आशाएं 
कोलाहल से दूर अकेला सीख गया था जीवन जीना 
लेकिन मन के द्वार खड़ा है फिर फैलाए कोई बाहें ||

लौट आये थे जिस मंजिल की ड्योढ़ी पर ये पग पड़ते ही 
आज नया साथी मंजिल का ड्योढ़ी चढ़ने को कहता है ||


बेघर कर डाला था मैंने सपनों के सब किरदारों को 
लेकिन मन के रंगमंच पर,बनता है मन ही अभिनेता 
दौड़ रहा विश्वाश अकेला जाने क्या पाने की जिद में 
कभी हारता कभी ठहरता घोषित होता स्वयं विजेता ||

हार गया था जीती बाजी चाहत की खुशियों की खातिर 
आज उन्ही खुशियों की खातिर कोई लड़ने को कहता है ||

मनोज 





गुरुवार, 15 मई 2014

सच्चा प्रेम नहीं है ये तो ,परिभाषाओं का जंगल है

सच्चा प्रेम नहीं है ये तो ,परिभाषाओं का जंगल है 
मेरा मन अपनी परिभाषा तुम्हे सुनाने को व्याकुल है ||

जीवन गोकुल जैसा पावन मन वृन्दावन वट हो जाए
 अभिलाषा के गंगा तट पर धैर्य स्वयं केवट हो जाए 
मोहन की यादों में आँखें बन जाएँ जब राधा मीरा 
अपनी धुन में बैरागी मन बन जाए जब मस्त कबीरा||

सच्चा प्रेम हिमालय जैसा युगों युगों से अटल अचल है 
खारा सागर क्या पहचाने उसमे भी तो गंगा जल है ||

जिसे जानने की हो मन में ,तीव्र पिपासा हट जिज्ञासा 
सम्मुख आते ही बन जाए केवल मौन -मौन की भाषा 
एक छुअन से महारास की जहाँ भूमिकाएं बन जाएँ 
काम वासना मन मंदिर की सभी सेविकाएँ बन जाएँ 

स्वाती बूंदों की चाहत में चातक का ईश्वर बादल है 
अलसाई आँखों में भी तो सपनो का सुन्दरतम कल है || 

आहें और कराहें तोड़ें ,जहाँ समय की सब सीमाएं 
अडिग रहे विश्वाश अकेला चाहे ईश्वर भी भरमायें 
कदम कदम पर सुलग रहे हों विरह वेदना के अंगारे 
जिन्हें बुझाने को बहते हों आँखों से सावन के धारे ||

कोरे कागज की धरती पर लिखने वाला भी पागल है
कागज को पूछो बोलेगा ये तो बस काला  काजल है ||

मनोज