शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

स्तोत्रम और मंत्र में अंतर

🔴🔵स्तोत्रम और मंत्र में क्या अंतर है?🔵🔴
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स्त्रोत और मंत्र देवताओं को प्रसन्न करने के शक्तिशाली माध्यम हैं। आज हम जानेंगे की मन्त्र और स्त्रोत में क्या अंतर होता है। किसी भी देवता की पूजा करने से पहले उससे सबंधित मन्त्रों को गुरु की सहायता से सिद्ध किया जाना चाहिए।

*स्त्रोत*

किसी भी देवी या देवता का गुणगान और महिमा का वर्णन किया जाता है। स्त्रोत का जाप करने से अलौकिक ऊर्जा का संचार होता है और दिव्य शब्दों के चयन से हम उस देवता को प्राप्त कर लेते हैं और इसे किसी भी राग में गाया जा सकता है। स्त्रोत के शब्दों का चयन ही महत्वपूर्ण होता है और ये गीतात्मक होता है।

*मन्त्र*

मन्त्र को केवल शब्दों का समूह समझना उनके प्रभाव को कम करके आंकना है। मन्त्र तो शक्तिशाली लयबद्ध शब्दों की तरंगे हैं जो बहुत ही चमत्कारिक रूप से कार्य करती हैं। ये तरंगे भटकते हुए मन को केंद्र बिंदु में रखती हैं। शब्दों का संयोजन भी साधारण नहीं होता है, इन्हे ऋषि मुनियों के द्वारा वर्षों की साधना के बाद लिखा गया है। मन्त्रों के जाप से आस पास का वातावरण शांत और भक्तिमय हो जाता है जो सकारात्मक ऊर्जा को एकत्रिक करके मन को शांत करता है। मन के शांत होते ही आधी से ज्यादा समस्याएं स्वतः ही शांत हो जाती हैं। मंत्र किसी देवी और देवता का ख़ास मन्त्र होता है जिसे एक छंद में रखा जाता है। वैदिक ऋचाओं को भी मन्त्र कहा जाता है। इसे नित्य जाप करने से वो चैतन्य हो जाता है। मंत्र का लगातार जाप किया जाना चाहिए। सुसुप्त शक्तियों को जगाने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं। मंत्र एक विशेष लय में होती है जिसे गुरु के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। जो हमारे मन में समाहित हो जाए वो मंत्र है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ ही ओमकार की उत्पत्ति हुयी है। इनकी महिमा का वर्णन श्री शिव ने किया है और इनमे ही सारे नाद छुपे हुए हैं। मन्त्र अपने इष्ट को याद करना और उनके प्रति समर्पण दिखाना है। मंत्र और स्त्रोत में अंतर है की स्त्रोत को गाया जाता है जबकि मन्त्र को एक पूर्व निश्चित लय में जपा जाता है।

*बीज मंत्र क्या होता है*

देवी देवताओं के मूल मंत्र को बीज मन्त्र कहते हैं। सभी देवी देवताओं के बीज मन्त्र हैं। समस्त वैदिक मन्त्रों का सार बीज मन्त्रों को माना गया है। हिन्दू धर्म के अनुसार सबसे प्रधान बीज मन्त्र ॐ को माना गया है। ॐ को अन्य मन्त्रों के साथ प्रयोग किया जाता है क्यों की यह अन्य मन्त्रों को उत्प्रेरित कर देता है। बीज मंत्रो से देव जल्दी प्रशन्न होते हैं और अपने भक्तों पर शीघ्र दया करते हैं। जीवन में कैसी भी परेशानी हो यथा आर्थिक, सामजिक या सेहत से जुडी हुयी कोई समस्या ही क्यों ना हो बीज मन्त्रों के जाप से सभी संकट दूर होते हैं।

स्तूयतेऽनेनेति स्तोत्रम्, स्तु+ष्ट्रन्, स्तुतिः, गुण कर्मादिभिः प्रशंसने इत्यमरः। जिससे गुण,कर्म आदि कहे जाएं वे स्तोत्र या स्तुति कहे जाते हैं, ऐसा अमरकोष में कहा गया है।

स्तोत्रं कस्य न तुष्टये। स्तुति या गुण यश के गान से, वर्णन करने से किसे संतुष्टि या प्रसन्नता नहीं होती। स्तुति देवता(देवी, देवता)के गुण, यश आदि के वर्णन को कहते हैं। इसमें भक्त अपने ईष्ट देवता से उनके गुणों का वर्णन करते हुए अपनी निस्सहायता एवं उनकी दयालुता प्रदर्शित करते हुए उनके कृपा के आकांक्षी होते हैं।

मन्त्र्यते गुप्तं परिभाष्यते इति मत्रि गुप्तभाषणे +घञ् ।यद्वा,मन्त्रयते गुप्तं भाषते इति मत्रि गुप्तभाषणे अच्। अमरकोष के इस व्युत्पत्ति परक व्याख्या से यह स्पष्ट है कि मन्त्र का अर्थ गुप्त या रहस्यपूर्ण कथन या बात से है। लोगों में आपस में कहा भी जाता है कि, क्या मन्त्रणा हो रही है।अर्थात् क्या गुप्त वार्ता हो रही है।

मन्त्र देवता की साधना के माध्यम हैं। शास्त्र में कहा गया है, मन्त्राधीनो देवता। मन्त्र रहस्यात्मक वर्ण समूह होते हैं। यद्यपि उन वर्णों या शब्दों के समूह के अर्थ होते हैं परन्तु उनके अर्थ गूढ होते हैं एवं उनके अर्थों से अधिक महत्व उनकी साधना में निहित होते हैं। मन्त्रों के अर्थ बेमेल या अनगढ़ अथवा आश्चर्य जनक भी हो सकते हैं जैसे शाबर मन्त्र के होते हैं। 

संत तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है, 

कलि बिलोकि, जग हित हर गिरिजा। 
साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा।।
अनमिल आखर अरथ न जापू। 
प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू।। 

अर्थात् शिव पार्वती ने कलि काल को देख कर संसार के कल्याण के लिए शाबर मन्त्र के समूहों की रचना की, जिनके अक्षर बेमेल हैं,उनके अर्थ नहीं होते( या ठीक नहीं होते), किन्तु भगवान् शिव के प्रताप से उनके प्रभाव होते हैं।

शास्त्रों में कहा गया है, देवाधीनो जगत् सर्वं, मन्त्राधीनो देवता। अर्थात् देवता के अधीन सम्पूर्ण संसार हैं तथा मन्त्रों के अधीन देवता हैं।

स्तोत्र और मन्त्र में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि मन्त्र बिना गुरु के दिए फलदायी नहीं होते या अनिष्ट फलदायी भी हो सकते हैं किन्तु स्तुति तो स्वयं पुस्तकों से भी किए जाते हैं एवं उनका हमेशा शुभ फल ही होता है।

मन्त्रों को देवता का शरीर रूप कहा गया है। इसीलिए उनके प्रति आवश्यक सावधानी भी बरतनी चाहिए। वेदों के मन्त्रों का यदि अक्षर या स्वर का गलत उच्चारण हो तो उनसे अनिष्ट होता है। जैसा की पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है, हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानो हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।। स्तोत्र और मन्त्र में इन सभी अन्तर के कथन के बाद यह कहना भी आवश्यक है कि इनमें समानता भी है जैसे दुर्गा शप्तशती के श्लोक स्वतः सिद्ध हैं,रामचरितमानस की चौपाइयाँ या दोहे भी स्वतः सिद्ध हैं। ये मन्त्र रूप ही हो चुके हैं। रामचरितमानस में वर्णित, जनकसुता जगजननि जानकी अतिशय प्रिय करुणा निधान की।ताके युगपदकमल मनावहुं जासु कृपा निर्मल मति पाबहुं।। यह गायत्री मंत्र का ही रूप है।

इसी प्रकार, मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।इस उक्ति से यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण वेद मन्त्र एवं ब्राह्मण (यहां ब्राह्मण का अर्थ यज्ञ है) यज्ञपरक गद्य का सम्मिलित रूप है। अब मन्त्र के विषय में यास्क के निरुक्त का निर्वचन देखें, मननात् त्राणनात् च मन्त्रः अर्थात् मनन् से विचारण से जो त्राण दिलावे, रक्षा करे वह मन्त्र है। 

भगवान् वेद व्यास ने कहा है, जपात्सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्नसंशयः। अर्थात् मन्त्र के सतत् जाप से सिद्धि मिलती है इसमें कोई संदेह नहीं। इष्ट देव का नाम भी मंत्र ही है। अपने इष्ट देव के मन्त्र का जप एवं कीर्तन, मन को एकाग्रचित्त करने वाला एवं कल्याण कारक होता है। 

*स्त्रोत और मंत्र जाप के लाभ*

चाहे मन्त्र हो या फिर स्त्रोत इनके जाप से देवताओं की विशेष कृपा प्राप्त होती है। शास्त्रों में मन्त्रों की महिमा का विस्तार से वर्णन है। श्रष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मन्त्रों से प्राप्त ना किया जा सके, आवश्यक है साधक के द्वारा सही जाप विधि और कल्याण की भावना। बीज मंत्रों के जाप से विशेष फायदे होते हैं। यदि किसी मंत्र के बीज मंत्र का जाप किया जाय तो इसका प्रभाव और अत्यधिक बढ़ जाता है। वैज्ञानिक स्तर पर भी इसे परखा गया है। मंत्र जाप से छुपी हुयी शक्तियों का संचार होता है। मस्तिष्क के विशेष भाग सक्रीय होते है। मन्त्र जाप इतना प्रभावशाली है कि इससे भाग्य की रेखाओं को भी बदला जा सकता है। यदि बीज मन्त्रों को समझ कर इनका जाप निष्ठां से किया जाय तो असाध्य रोगो से छुटकारा मिलता है। मन्त्रों के सम्बन्ध में ज्ञानी लोगों की मान्यता है की यदि सही विधि से इनका जाप किया जाय तो बिना किसी औषधि की असाध्य रोग भी दूर हो सकते हैं। विशेषज्ञ और गुरु की राय से राशि के अनुसार मन्त्रों के जाप का लाभ और अधिक बढ़ जाता है।

विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए पृथक से मन्त्र हैं जिनके जाप से निश्चित ही लाभ मिलता है। मंत्र दो अक्षरों से मिलकर बना है मन और त्र। तो इसका शाब्दिक अर्थ हुआ की मन से बुरे विचारों को निकाल कर शुभ विचारों को मन में भरना। जब मन में ईश्वर के सम्बंधित अच्छे विचारों का उदय होता है तो रोग और नकारात्मकता सम्बन्धी विचार दूर होते चले जाते है। वेदों का प्रत्येक श्लोक एक मन्त्र ही है। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।

विभिन्न मन्त्र और उनके लाभ :

ॐ गं गणपतये नमः : इस मंत्र के जाप से व्यापार लाभ, संतान प्राप्ति, विवाह आदि में लाभ प्राप्त होता है।

ॐ हृीं नमः : इस मन्त्र के जाप से धन प्राप्ति होती है।

ॐ नमः शिवाय : यह दिव्य मन्त्र जाप से शारीरिक और मानसिक कष्टों का निवारण होता है।

ॐ शांति प्रशांति सर्व क्रोधोपशमनि स्वाहा : इस मन्त्र के जाप से क्रोध शांत होता है।

ॐ हृीं श्रीं अर्ह नमः : इस मंत्र के जाप से सफलता प्राप्त होती है।

ॐ क्लिीं ॐ : इस मंत्र के जाप से रुके हुए कार्य सिद्ध होते हैं और बिगड़े काम बनते हैं।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय : इस मंत्र के जाप से आकस्मिक दुर्घटना से मुक्ति मिलती है।

ॐ हृीं हनुमते रुद्रात्म कायै हुं फटः : सामाजिक रुतबा बढ़ता है और पदोन्नति प्राप्त होती है।

ॐ हं पवन बंदनाय स्वाहा : भूत प्रेत और ऊपरी हवा से मुक्ति प्राप्त होती है।

ॐ भ्रां भ्रीं भौं सः राहवे नमः : परिवार में क्लेश दूर होता है और शांति बनी रहती है।

ॐ नम: शिवाय : इस मंत्र के जाप से आयु में वृद्धि होती है और शारीरिक रोग दोष दूर होते हैं।

ॐ महादेवाय नम: सामाजिक उन्नति और धन प्राप्ति के लिए यह मन्त्र उपयोगी है।

ॐ नम: शिवाय : इस मंत्र से पुत्र की प्राप्ति होती है।

ॐ नमो भगवते रुद्राय : मान सम्मान की प्राप्ति होती है और समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है।
ॐ नमो भगवते रुद्राय : मोक्ष प्राप्ति हेतु।

ॐ महादेवाय नम: घर और वाहन की प्राप्ति हेतु।

ॐ शंकराय नम: दरिद्रता, रोग, भय, बन्धन, क्लेश नाश के लिए इस मंत्र का जाप करें।

संस्कृत साहित्य में किसी देवी-देवता की स्तुति में लिखे गये काव्य को स्तोत्र कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में यह स्तोत्रकाव्य के अन्तर्गत आता है। महाकवि कालिदास के अनुसार 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये' अर्थात् विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो स्तुति से प्रसन्न न हो जाता हो। इसलिये विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने हेतु वेदों, पुराणों तथा काव्यों में सर्वत्र सूक्त तथा स्तोत्र भरे पड़े हैं। अनेक भक्तों द्वारा अपने इष्टदेव की आराधना हेतु स्तोत्र रचे गये हैं। विभिन्न स्तोत्रों का संग्रह स्तोत्ररत्नावली के नाम से उपलब्ध हैं।

मंत्र की उत्पत्ति विश्वास से और सतत मनन से हुई है। आदि काल में मंत्र और धर्म में बड़ा संबंध था। प्रार्थना को एक प्रकार का मंत्र माना जाता था। मनुष्य का ऐसा विश्वास था कि प्रार्थना के उच्चारण से कार्यसिद्धि हो सकती है। इसलिये बहुत से लोग प्रार्थना को मंत्र समझते थे।

हिन्दू श्रुति ग्रंथों के पारंपरिक रूप मंत्र कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ विचार या चिंतन होता है। मंत्रणा और मंत्री इसी मूल से बने शब्द हैं। मंत्र भी एक प्रकार की वाणी है, परन्तु साधारण वाक्यों के समान वे हमको बंधन में नहीं डालते, बल्कि बंधन से मुक्त करते हैं।
मंत्र (मंत्र) - एक पवित्र उच्चारण है, शब्दों का एक शब्दांश मूल है जिसमें माना जाता है कि मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक शक्तियां हैं।

उदाहरण - गायत्री मंत्र, ओम, शांति मंत्र

सूक्तम (सूक्त) - प्रत्येक वेद को मंडला में विभाजित किया जाता है जिसमें विभिन्न अनुष्ठानों के लिए सूक्त नामक भजन होते हैं। बदले में सूक्त में व्यक्तिगत नारे शामिल हैं (कविता)

उदाहरण - नासदीय सूक्त, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त

स्तोत्र (स्तोत्र) - ये भगवान की स्तुति करने के लिए लिखे गए भजन हैं। सूक्तम और स्तोत्र दोनों का एक ही उद्देश्य है कि भगवान से प्रार्थना करें।

उदाहरण - पंचाक्षरा स्तोत्र, राम रक्षा स्तोत्र, सरस्वती स्तोत्र

शोलका (श्लोक) - पद्य की क्रमिक पंक्तियों की एक जोड़ी, आमतौर पर तुकबंदी और एक ही लंबाई की। अधिकांश हिंदू धर्मग्रंथ स्लोका के रूप में लिखे गए हैं। महाभारत, रामायण और उपनिषद

स्तुति (स्तुति) - भगवान को अर्पित की जाने वाली कोई भी प्रार्थना, मंत्र, सूक्तम, स्तोत्र, आरती, भजन का पाठ करके की जा सकती है।

उदाहरण - लक्ष्मी स्तुति

मंत्र वह ध्वनि है जो अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनता है। मन्त्र ध्वनि प्रधान हैं। मन्त्र ध्वनि के तरंगों से संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त नाद ऊर्जा से एकाकार होकर ध्यान की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पूरी तरह से ब्रह्मांड रचयिता प्रभु के साथ एकाकार हो जाता है, जो सारे ज्ञान का स्रोत है। मंत्रों के द्वारा साधक दिव्य ऊर्जा के स्रोत से जुड़कर अपने और सभी के कष्टों का निवारण कर सकने में समर्थ हो जाता है। मन्त्र की सिद्धि और शक्ति उसके उच्चारण के लय, तीव्रता, आवृत्ति, उच्चारण अवधि तथा शुद्धता और साधक के शुचिता पर आधारित होता है।

दिव्यस्वरूपों की स्तुति को स्तोत्र कहते हैं। किसी देवता की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये उनकी स्तुति में स्तोत्र का पाठ किया जाता है। विभिन्न देवताओं के अलग अलग स्तुतियाँ है जो ऋचाओं, सूक्तों में वेदों, पुराणों एवं ग्रन्थों में वर्णित हैं।

धन्यवाद एवं साधुवाद। शुभं भूयात्।

#आर्यवर्त #अघोर

सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

🌹🌹ऋग्वेदोक्त श्री सूक्त हिंदी भावार्थ सहित 🌹🌹

🌹🌹ऋग्वेदोक्त श्री सूक्त हिंदी भावार्थ सहित 🌹🌹

श्री सूक्त या श्री सूक्तम महालक्ष्मी की उपासना के लिए ऋग्वेद में वर्णित एक स्तोत्र है। श्री सूक्त का पाठ महालक्ष्मी की प्रसन्नता एवं उनकी कृपा प्राप्त कराने वाला है साथ ही व्यापार में वृद्धि, ऋण से मुक्ति और धन प्राप्ति के लिए भी इसका पाठ तथा अनुष्ठान किया जाता है।

श्रद्धा एवं विश्वास के साथ इस स्तोत्र का पाठ करने वाले व्यक्ति पर माता लक्ष्मी कृपा करती हैं। लक्ष्मी जी की कृपा होने पर व्यक्ति सिर्फ धन और ऐश्वर्य ही नहीं बल्कि यश एवं कीर्ति भी प्राप्त करता है।

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥1॥

अर्थ – हे सर्वज्ञ अग्निदेव ! सुवर्ण के रंग वाली, सोने और चाँदी के हार पहनने वाली, चन्द्रमा के समान प्रसन्नकांति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करो।

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥

अर्थ – अग्ने ! उन लक्ष्मीदेवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करो।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥3॥

अर्थ – जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मीदेवी मुझे प्राप्त हों।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां
तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥4॥

अर्थ – जो साक्षात ब्रह्मरूपा, मंद-मंद मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, अपने भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये
अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥5॥

अर्थ – मैं चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्र्य दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु
या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥

अर्थ – हे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूपे ! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें।

उपैतु मां देवसखः
कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्
कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥

अर्थ – देवि ! देवसखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥8॥

अर्थ – लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन और क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि ! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥9॥

अर्थ – जो दुराधर्षा और नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से ( पशुओं से ) युक्त गन्धगुणवती हैं। पृथ्वी ही जिनका स्वरुप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ अपने घर में आवाहन करता हूँ।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥10॥

अर्थ – मन की कामनाओं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो। गौ आदि पशु एवं विभिन्न प्रकार के अन्न भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें।

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥11॥

अर्थ – लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि ! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण करनेवाली माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित करें।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥12॥

अर्थ – जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करे। लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मीदेवी का मेरे कुल में निवास करायें।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥13॥

अर्थ – अग्ने ! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करनेवाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे यहाँ आवाहन करें।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥14॥

अर्थ – अग्ने ! जो दुष्टों का निग्रह करनेवाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करनेवाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें।

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम् ॥15॥

अर्थ – अग्ने ! कभी नष्ट न होनेवाली उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥16॥

अर्थ – जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त का निरन्तर पाठ करे।

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सं नि धत्स्व ॥17॥

अर्थ – कमल के समान मुखवाली ! कमलदल पर अपने चरणकमल रखनेवाली ! कमल में प्रीति रखनेवाली ! कमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाली ! समग्र संसार के लिये प्रिय ! भगवान विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करनेवाली ! आप अपने चरणकमल को मेरे हृदय में स्थापित करें।

पद्मानने पद्मऊरु पद्माक्षि पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥18॥

अर्थ – कमल के समान मुखमण्डल वाली ! कमल के समान ऊरुप्रदेश वाली ! कमल के समान नेत्रोंवाली ! कमल से आविर्भूत होनेवाली ! पद्माक्षि ! आप उसी प्रकार मेरा पालन करें, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो।

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥19॥

अर्थ – अश्वदायिनी, गोदायिनी, धनदायिनी, महाधनस्वरूपिणी हे देवि ! मेरे पास सदा धन रहे, आप मुझे सभी अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करें।

पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरी रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे ॥20॥

अर्थ – आप प्राणियों की माता हैं। मेरे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, खच्चर तथा रथ को दीर्घ आयु से सम्पन्न करें।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विना ॥21॥

अर्थ – अग्नि, वायु, सूर्य, वसुगण, इन्द्र, बृहस्पति, वरुण तथा अश्विनी कुमार – ये सब वैभवस्वरुप हैं।

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥22॥

अर्थ – हे गरुड ! आप सोमपान करें। वृत्रासुर के विनाशक इन्द्र सोमपान करें। वे गरुड तथा इन्द्र धनवान सोमपान करने की इच्छा वाले के सोम को मुझ सोमपान की अभिलाषा वाले को प्रदान करें।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्तजापिनाम् ॥23॥

अर्थ – भक्तिपूर्वक श्री सूक्त का जप करनेवाले, पुण्यशाली लोगों को न क्रोध होता है, न ईर्ष्या होती है, न लोभ ग्रसित कर सकता है और न उनकी बुद्धि दूषित ही होती है।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्र सीद मह्यम् ॥24॥

अर्थ – कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करनेवाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होनेवाली, भगवान विष्णु की प्रिया लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली हे भगवति ! मुझपर प्रसन्न होइये।

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं भूमिं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥25॥

अर्थ – भगवान विष्णु की भार्या, क्षमास्वरूपिणी, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युतवल्लभा, भूदेवी भगवती लक्ष्मी को मैं नमस्कार करता हूँ।

महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥26॥

अर्थ – हम विष्णु पत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं। वे लक्ष्मीजी सन्मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रेरणा प्रदान करें।

आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः।
ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः ॥27॥

अर्थ – पूर्व कल्प में जो आनन्द, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत नामक विख्यात चार ऋषि हुए थे। उसी नाम से दूसरे कल्प में भी वे ही सब लक्ष्मी के पुत्र हुए। बाद में उन्हीं पुत्रों से महालक्ष्मी अति प्रकाशमान शरीर वाली हुईं, उन्हीं महालक्ष्मी से देवता भी अनुगृहीत हुए।

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥28॥

अर्थ – ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि – ये सभी मेरी बाधाएँ सदा के लिये नष्ट हो जाएँ।

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥29॥

अर्थ – भगवती महालक्ष्मी मानव के लिये ओज, आयुष्य, आरोग्य, धन-धान्य, पशु, अनेक पुत्रों की प्राप्ति तथा सौ वर्ष के दीर्घ जीवन का विधान करें और मानव इनसे मण्डित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करे।

॥ ऋग्वेद वर्णित श्री सूक्त सम्पूर्ण ॥