मै ही रावण मै ही राघव द्वन्द भरी लंका का वासी
कभी अयोध्या निर्मित करने की मन में अभिलाषा आये
डूब गयी वह विषय सिन्धु में ,जब तक निर्मित हुयी ज़रा सी ||
सुख -दुःख की आपाधापी में जीवन की परिभाषा डोले
मन की कल्पित माया मेरी सही -गलत के पात्र टटोले
समय चक्र को भेद सका ना अब तक कोई जगत निवासी
मै भी कटपुतली हूँ हर पल, जिसे नचाये कण -कण वासी ||
धर्म समझ पाऊं भी कैसे , परिभाषाओं की मंडी में
सत्य परत दर परत गूढ़ है , अनुभवशाली पगडण्डी में
सांस -सांस में प्राणवायु के साथ मृत्यु भी प्यासी- प्यासी
जितना चाहूँ भागूं लेकिन सत्य सदा रहता अविनाशी ||
मर्यादा के पाठ पढ़े जब रोती -मिली द्रोपदी -सीता
कभी नहीं समझा है कोई एहसासों की सच्ची गीता
ना मै अर्जुन सम योद्धा हूँ ना ही वीर भीष्म विश्वासी
दुनियादारी में उलझा हूँ , कैसे जाऊं काबा -काशी ||
पांच इन्द्रियों के छल -बल से कितनी बार हार कर रोया
जीवन पथ पर चलते सोचूं क्या है पाया क्या है खोया
सोच सोच कर मन भटका है , हुआ बावरा भोग विलासी
पश्चाताप हुआ भी लेकिन, माया ने कर दिया उदासी ||
मेरी जीवन रामायण में एक अकेला मै वनवासी
मै ही रावण मै ही राघव द्वन्द भरी लंका का वासी||
मनोज नौटियाल
मनोज नौटियाल
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