मित्र ग़ाज़ियाबादी जी की लिखी दो पंक्तियों पर मेरी गुस्ताखी .....
क्यूँ न मन मेरा प्यासा हो ?
जन्मों की तुम अभिलाषा हो ।
समीकरण सी दुनियाँ दारी
धर्मों की तुम परिभाषा हो ।।
शून्य जगत है , और जगत में
तुम जीवन की , जिज्ञासा हो ।।
मैं हूँ पांडव , की निर्धनता
तुम , उस घर की , दुर्वासा हो।।
मित्र , गाजियाबाद, हमारा
तुम उस घर की ,इक आशा हो।।
जय हो ,😍😍😍😍😍
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें