कल तक जिसने मुझको अपने जीवन का आधार कहा था
रिश्तों का त्यौहार कहा था , मन मंदिर का द्वार कहा था
आज सुना है, रोज डराती हैं, उसको मेरी परछाई
जिसने मुझको अपने जीवन का अनुपम उपहार कहा था ||
जिसने रिश्तों के बंधन का भवसागर मुझको समझाया
जिसने सुख दुःख में बोला था साथ रहूंगी बन कर साया
लेकिन आज बुना है उसने ही काँटों का ताना बाना
जिसने कल तक मुझको अपने आँगन की तुलसी बतलाया ||
जो भी है अब , लेकिन इतना ,सुन लो अंतिम उच्चारण है
सूर्पणखा तुम मत बन जाना , क्रूर बहुत ये अहिरावण है
खुश रहना तुम रहने देना , मुझको मौन फकीरों जैसा
सब षड्यंत्र त्याग दो अपने , यही बगावत का कारण है
...मनोज
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