रविवार, 28 अप्रैल 2013

थक कर मृत्यु सभा में सबको रुकना होगा चलते चलते

























थक कर मृत्यु सभा में सबको रुकना होगा चलते चलते 

चिता चपल की लपटों में तन राख बनेगा जलते जलते ||



दुनिया दारी की बाजारी अंकगणित का प्रश्न नहीं है 
रिश्तों की घट जोड़ उधारी स्वार्थ रहित शुभ स्वप्न नहीं है 
अपने मन के बीतराग को कौन समझ सकता है बेहतर 
आत्म तत्व की सहज समाधि नहीं मिली माया में रहकर ||

बूढा वृक्ष बनेगा यह तन इक दिन आखिर झुक जाएगा 
जीवन नभ में लाल आवरण फैलेगा दिन ढलते ढलते ||

राग द्वेष से उपजा छल बल दान दंभ का ही देता है 
मन कल्मष करता है केवल मान भंग निश्चित होता है 
प्रेम मन्त्र है मानव् सेवा आत्म तुष्टि का मूल यही है 
परहित की हो तीव्र पिपाशा सत्य धर्म प्रतिकूल यही है ||

पञ्च तत्व का भौतिक दर्शन यह तन सत्य नहीं है बंधू 
आत्म बोध के अभिलेखों को पढ़ते जा नित बढ़ते बढ़ते ||

रंगमंच में हर नाटक का केंद्रबिंदु ज्यूँ अभिनेता है 
उस ईश्वर के अंशी हैं हम पात्र वही हमको देता है 
दुःख सुख की दोलन शाला में दर्शक भी तू नर्तक भी तू 
आंसू हो या हंसी लबों पर भोगों का प्रवर्तक भी तू ||

कितने ही सरताज हुए हैं , बड़े बड़े थे शाह शिकंदर 
         आखिर क्या पाया उन सब ने मानवता से लड़ते लड़ते ||......मनोज

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