बुधवार, 21 अगस्त 2013

एक तरफ़ा प्रेम की संकरी गली में


एक तरफ़ा प्रेम की संकरी गली में 

मै स्वयं ही देवता हूँ साधना का 
और साधक भी स्वयं मै ही अकेला 
मन्त्र जपता हूँ निरंतर भावना का ||



उम्र की अल्ल्हड़ घनी अमराइयों में 
मन मयूरा बेसुधी में नाचता था 
पृष्ठ लिखे थे धरा पर जो समय ने 
जानकारी की तरह मै बांचता था ||

आज बिलकुल ही अलग है वो लिखावट 
सत्य से पर्दा गिरा जब वासना का ||

जो ह्रदय की कालिमा को न दिखाए 
स्वार्थ के पुतले उसे पहचानते हैं 
आवरण छल का चढ़ाये जी रहा जो 
व्यक्ति का संस्कार उसको मानते हैं ||

छोड़ देते हैं अकेला राह में जब 
भाव कोई व्यक्त कर दे कामना का ||

आज समझा हूँ समर्पण राधिका का 
क्यों हुयी थी बावरी मीरा दीवानी 
किस खुमारी में कबीरा नाचता था 
क्यूँ सुदामा ले गया तांदुल निशानी ||

प्रेम में चलता नहीं खोना कमाना 
प्रेम तो निश्वार्थ फल है प्रार्थना का ||.....मनोज

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