मंगलवार, 12 नवंबर 2013

भटक रहा हूँ प्यासा अब तक खारे पानी के सागर में





भटक रहा हूँ प्यासा अब तक खारे पानी के सागर में 
तुम को कैसे दे पाऊंगा मानसरोवर का गंगाजल ?

अमृत की चाहत में निकला करने जब इस मन का मंथन 
बीत राग के विष के घट से झुलस गया सारा अंतर्मन 
मांग रहा अस्तित्व सिसकते एहसासों का लेखा -जोखा 
वर्तमान बन गया विवशता और भविष्य मृत्यु का आँगन ||

मौन साधना की चाहत में खोज रहा हूँ मै वीराना 
डरा रहा है अब मुझको तेरा विषय वासना का कोलाहल ||

सदियों पहले हम दोनों ने मिलकर कुछ एहसास लिखे थे 
एक साथ जीने मरने के सच्चे शुभ विश्वास लिखे थे 
पुनः आज तुमने जो देखे चित्र स्वप्न में बीते कल के 
सदियों से दोनों ने मिलकर हमने वो इतिहास लिखे थे ||

लेकिन वर्तमान अब अपना विलग विलग दो धाराएं हैं 
संभव है गंगा सागर में भी मिलना हो जाए मुश्किल ||

मै जब पहली बार खोलने आया था शापित दरवाजा 
अच्छा होता लौट गए होते सुनकर वो झूठा वादा 
या फिर दुनिया की निर्मोही झूठी रश्मों को ठुकरा कर 
लांघ गए होते हम दोनों संबंधों की सब मर्यादा ||

अब मैंने अपने साहस को कहीं और कर डाला अर्पित 
रीता ही रखना होगा अब तुमको अपना रीता आँचल ||

मेरी दुनिया में सच मानो वर्षों से अब केवल मै हूँ 
आत्मसमर्पण भी मै ही हूँ अहंकार भी केवल मै हूँ 
कब्रिस्तान समझ कर बैठा हूँ मै माया की बस्ती में 
युद्ध स्वयं से है मेरा ये दुश्मन भी खुद का मै ही हूँ ||

तुम भी यदि लड़ना चाहो तो लड़ लेना उस बीते कल से 
मेरी बैरागी कुटिया में स्वागत है तेरा भी निश्छल ||


मनोज

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