रे मनवा क्या ये संभव है ?
क्या ये संभव है लौट आयें बचपन की वो सरल शरारत
कोरे कागज़ सा मन जिस पर होती थी मासूम शिकायत
दुनिया खेल खिलौनों की वो जिसमे केवल वर्तमान था
हँसना रोना अंतर्मन से , अल्ल्हड़ होती थी हर चाहत ||
ना कोई मन में शंशय है
रे मनवा क्या ये संभव है ?
माँ फिर से वात्सल्य लुटाये , पापा लाड़ करें पग पग पर
ना कुछ करने की चिंता हो , ना जीवन अटका हो कल पर
आँगन भर दुनिया हो केवल , कमरे भर अपने बसते हों
अ आ इ ई ज्ञान पूर्ण हो , वन टू का हो गणित पटल पर ||
ना कोई पेपर का भय है
रे मनवा क्या ये संभव है ?
परियों की हो मधुर कहानी , रोज सुनाएँ दादी नानी
दादा -नाना घोड़ा बनकर , करते हों मेरी अगवानी
पंचतंत्र की नैतिक शिक्षा , संस्कारों की परिभाषा हो
गुल्ली डंडा खेलें मिलकर , सब करते अपनी मनमानी ||
जीत हार का ना आशय है
रे मनवा क्या ये संभव है ?
बना नाव कागज़ की उसको वर्षा के जल में दौडाना
वायुयान भी कागज का ही खुली हवा में उसे उडाना
राजा ,रानी ,चोर , सिपाही कागज़ के टुकड़ों पर लिख कर
कौन चोर है कौन सिपाही आपस में बेख़ौफ़ बताना ||
खेल खेल में होती जय है
रे मनवा क्या ये संभव है ?
भूख टिफिन भर होती केवल प्यास एक थर्मस का पानी
डर का नाम मास्टर जी थे , चिंता ना हो ड्रेस पुरानी
आशा छुट्टी की घंटी थी , अभिलाषा संडे कब आये
दुःख केवल नंबर कम आना ,आँखों से जब बरसे पानी ||
बचपन कितना आनंदमय है
रे मनवा क्या ये संभव है ?
मनोज नौटियाल
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