रविवार, 9 फ़रवरी 2014

तुम जिसके सम्मुख भावों का गंगाजल अर्पण करती हो




तुम जिसके सम्मुख भावों का गंगाजल अर्पण करती हो 
उसके अंतर घट में केवल मन मंथन की मधुशाला है ||

तुमने केवल अब तक जिसके बाह्य जगत को पहचाना है 
उस अंतर में स्याह अमावास की रातों का वीराना है 
मोह करोगी निर्मोही से... क्या पा जाओगी बतलाओ 
इस बैरागी की कुटिया से तुमने खाली ही जाना है ||

तुम योवन की वर्षा करने जिसके आँगन में आई हो 
उसके जीवन के आँगन में केवल नफरत की ज्वाला है ||

आँखों से बहती गंगा से प्रछालन मंडप का करने
जहाँ रोज आते हैं लाखों परवाने उल्लासित जलने
जहाँ लगाती है परिणय की उबटन विरह वेदना आकर
करुणा पात्र सजाये जोगन माया क्या आएगी छलने ||

तुम परिणय प्रस्ताव प्रेम से लायी हो जिसकी ड्योढ़ी पर 
परम सत्य से परिणय कर वो पहने बैठा जयमाला है ||

आँखों में फ़रियाद नहीं है, मन में कोई याद नहीं है
खोने पाने का जीवन में ,शेष कोई अवसाद नहीं है
मस्ती की मधुशाला में ही उसका नित आना जाना है
गूँज रहा है गीत प्रेम का किन्तु कोई अनुनाद नहीं है ||

तुम तर्कों से जितना चाहो समझाने की कोशिश कर लो 
आखिर में हर निर्णय केवल , ये मन से करने वाला है ||

उसका प्रेम फकीरी धुन है ,उसकी वीणा उसका मन है
पूर्ण समर्पण से भी आगे , उसकी पूजा का आँगन है
विरह वेदना की लपटों में जलता रहता है वो जोगी 
तन की भस्म बना कर अपने स्वामी को देता चन्दन है ||

अब तुम ही बोलो कैसे तुम रह पाओगी घर में जिसके 
ना संस्कारों की चाबी है ....ना मर्यादा का ताला है ||


मनोज

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