गुरुवार, 15 मई 2014

सच्चा प्रेम नहीं है ये तो ,परिभाषाओं का जंगल है

सच्चा प्रेम नहीं है ये तो ,परिभाषाओं का जंगल है 
मेरा मन अपनी परिभाषा तुम्हे सुनाने को व्याकुल है ||

जीवन गोकुल जैसा पावन मन वृन्दावन वट हो जाए
 अभिलाषा के गंगा तट पर धैर्य स्वयं केवट हो जाए 
मोहन की यादों में आँखें बन जाएँ जब राधा मीरा 
अपनी धुन में बैरागी मन बन जाए जब मस्त कबीरा||

सच्चा प्रेम हिमालय जैसा युगों युगों से अटल अचल है 
खारा सागर क्या पहचाने उसमे भी तो गंगा जल है ||

जिसे जानने की हो मन में ,तीव्र पिपासा हट जिज्ञासा 
सम्मुख आते ही बन जाए केवल मौन -मौन की भाषा 
एक छुअन से महारास की जहाँ भूमिकाएं बन जाएँ 
काम वासना मन मंदिर की सभी सेविकाएँ बन जाएँ 

स्वाती बूंदों की चाहत में चातक का ईश्वर बादल है 
अलसाई आँखों में भी तो सपनो का सुन्दरतम कल है || 

आहें और कराहें तोड़ें ,जहाँ समय की सब सीमाएं 
अडिग रहे विश्वाश अकेला चाहे ईश्वर भी भरमायें 
कदम कदम पर सुलग रहे हों विरह वेदना के अंगारे 
जिन्हें बुझाने को बहते हों आँखों से सावन के धारे ||

कोरे कागज की धरती पर लिखने वाला भी पागल है
कागज को पूछो बोलेगा ये तो बस काला  काजल है ||

मनोज 






























कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें