हमारे हौसले अब भी उन्हें छू कर निकलते हैं
उन्हें शक है मुहोब्बत में कई शोले पिघलते हैं ।।
कोई अनजान सा गम है जुदाई के पलों का भी
ये कैसी आग है जिसमे बिना जल कर सुलगते हैं ।।
खफा होती हुयी जब भी दिखाई दी हमें चाहत
खता कुछ भी नहीं रहती बिना कारण चहकते हैं ।।
सुना है आज कल उनकी गली में हुश्न तनहा है
घडी भर दीद करने को भला क्यूँ कर हिचकते हैं ।।
खयालों में कभी उसने हमें हर पल सजाया था
शबाब- ए- मुश्क से हर ख्वाब रातों में महकते हैं ।।
अदाओं से निगाहों से हजारों क़त्ल कर डाले
यही तो बात है तुम में इसी कर हम बहकते हैं ।। ......मनोज
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