बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

छला गया हूँ कई बार

छला गया हूँ कई बार
खुद से ही हर बार
और दोष देता रहा कभी दुनिया को
और कभी खुदा को
बेकार की गणित में उलझा रहा
हसना , रोना , सुख , दुःख के समीकरण
बिना उत्तर के प्रश्न सुलझा रहा

आरोपण ही करता रहा ...... सहता गया
कभी विश्वास की तलवार का वार
--------और कभी समय की मार
खुशियाँ दिखती बड़ी हसीन-ओ -रंगीन हैं
      क्षण भर के नशे जैसी शराब.........
बिन पिए रह न सका .... और खो गया
आँख खुली तो सामने दुःख का पहाड़ .............

फिर गणित का वही निरुत्तर सवाल
क्या पाया क्या खोया मैंने ?
पैदा हो गए अनगिनत सवाल पर सवाल
यहाँ तक की  खुद ही सवाल बन गया
कौन हूँ मै? कहाँ से आया ? कहाँ है जाना ?
दुनिया लगने लगी मकड़ी का जाल ..........

अब मै वो नहीं रहा था ...जो था अब तक
न कोई सवाल था ....और न कोई जवाब
निरुत्तर , निर्दोष ,  निर्बोध , साक्षी भाव
मै मौन था ..... किन्तु एक आवाज आई
कौन था पता नहीं ..... शायद भगवान....
शायद इसलिए क्यूंकि कहते हैं
जो  दिखाई न दे वही है भगवान .......


मेरे सारे अंतर्द्वंद का अंत हो गया
और अंत हो गया मेरे सारे प्रश्न मंडली का
करुणता से प्रोत थी वो आवाज जब सुनी
बस इतना ही कहा उसने मुझसे धीरे से
मै तुम्हारी आत्मा हूँ ...... मुझे भूल क्यूँ गए ?
तुम यहाँ आये थे कर्म में उत्सव मानाने
लेकिन  कर्ता बन कर कर्म से क्यूँ  जुड़ गए ?
पगले उत्सव तेरा असली स्वाभाव है
जीवन उत्सव की कुंजी साक्षी भाव है .................................मनोज

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