कृष्ण तृष्णा जीव की चिर प्रीत संगम है
वो नित चराचर में बसा मन व्यर्थ का भ्रम है
अश्रु से अभिशेख कर कर होम विषयों का
वासना के पार ही वो नित दिवा सम है
भव बन्धनों में रोप दे ज्ञान के अरविन्द को
ज्ञान के बिन दिवा भी घनघोर सा तम है
मुक्ति पथ मोक्ष में आसक्त है अनवरत
मरण जीवन प्रायश्चित का छुद्र सा क्रम है
मृग मारीचिका सम छल कपट के बहु पाश में
जगत और जगदीश में अंतर बहुत कम है ............मनोज
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