बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

मै पृथ्वी हूँ

हे मानव 
मै पृथ्वी हूँ 
तेरे अस्तित्व की जननी 
युगों युगों से संजोयी  है मैंने 
तेरे विकाश की हर कहानी 

जन्मदात्री न सही
 पर उस माँ से कम भी नहीं 
उत्पति से अंत की पोषक 
तेरे अस्तित्व की सृजक 
आज लाचार हूँ तू सुनता ही नहीं 

सुनता ही नहीं तू 
मेरी करुण पुकार को 
विकाश पथ पर चलते हुए 
मिटाने चला है तू मेरे अस्तित्व को 
काट रहा है वृक्ष रुपी मेरे श्रृंगार को 

मेरे सीने को खोद खोद कर 
आशियाने बना रहा है , 
विज्ञान की तलवार चला कर 
ज्ञान की कि ये कैसी हिंसा है ?
स्वार्थ ही स्वार्थ नजर आ रहा है 

शक्ति दुर्गा भी है और काली भी 
और दोनों माँ भी है तुझे मालूम है 
कई बार देख लिया है तूने 
अपनी इस माँ को काली बनते 
ग्रास बना लेती हूँ मै फिर चाहे मासूम है 

इतना समझ ले बेटा 
जब भी तुमने इस  माँ को पीड़ा दी है 
उसके ही दिल के टुकड़ों ने  
एक आह पर डोला है ब्रह्मलोक 
और समा गयी मै सागर में 
सब कुछ डूबा है , चंद पलों में 
और हुआ है युग परिवर्तन 
क्या तू भी यही चाहता है ?........................ मनोज 

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