हे मानव
मै पृथ्वी हूँ
तेरे अस्तित्व की जननी
युगों युगों से संजोयी है मैंने
तेरे विकाश की हर कहानी
जन्मदात्री न सही
पर उस माँ से कम भी नहीं
उत्पति से अंत की पोषक
तेरे अस्तित्व की सृजक
आज लाचार हूँ तू सुनता ही नहीं
सुनता ही नहीं तू
मेरी करुण पुकार को
विकाश पथ पर चलते हुए
मिटाने चला है तू मेरे अस्तित्व को
काट रहा है वृक्ष रुपी मेरे श्रृंगार को
मेरे सीने को खोद खोद कर
आशियाने बना रहा है ,
विज्ञान की तलवार चला कर
ज्ञान की कि ये कैसी हिंसा है ?
स्वार्थ ही स्वार्थ नजर आ रहा है
शक्ति दुर्गा भी है और काली भी
और दोनों माँ भी है तुझे मालूम है
कई बार देख लिया है तूने
अपनी इस माँ को काली बनते
ग्रास बना लेती हूँ मै फिर चाहे मासूम है
इतना समझ ले बेटा
जब भी तुमने इस माँ को पीड़ा दी है
उसके ही दिल के टुकड़ों ने
एक आह पर डोला है ब्रह्मलोक
और समा गयी मै सागर में
सब कुछ डूबा है , चंद पलों में
और हुआ है युग परिवर्तन
क्या तू भी यही चाहता है ?........................ मनोज
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