मैंने बहुत खोजा
तुम भी खोजो
पता नहीं कहाँ खो गया
कब से ओझल हो गया
पुतला रह गया तन
स्वार्थ से भर गया मन
बिलकुल खामोश सुनसान है
ये वही इन्सान है ?
वही इंसान
जो स्तंभित था दया से
परोपकार की दवा से
भाव का सागर बहाता
ज्ञान गंगा से नहाता
कुंठित क्यूँ हो गया ?
अवसाद से क्यूँ भर गया ?
जीवन रहते ही मर गया ..........
मारा हुआ ही तो है
भूल कर अपनी पहचान
लड़ रहा युद्ध अकारण
कभी पत्थर के लिए
और कभी मिटटी के लिए
रक्त की होली खेल रहा है
अपने ही भाई के लहू से ..........
लहू जो सबकी धमनियों में
एक रंग ही भरा है मालिक ने
वही मालिक जो आज स्तब्ध है
प्रगति पथ पर विनाश देख कर
अपने ही बच्चों की दुर्दशा देख
कौन बाप हर्षित होता है ?
लेकिन उसके बच्चों ने
आज बाप की ही दुर्दशा कर दी
टुकड़ों में काट कर सजा दिया
अपने इजाद किये मंदिरों में
वही मंदिर जहाँ कोलाहल है
लेकिन शांति नहीं
धधकती ज्वाला है
किन्तु क्रांति नहीं
मुझे तो याद भी नहीं अब
की मैंने आखिरी बार कब पूजा की
क्या आपको याद है ?........................मनोज
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