काव्य को दरकार है श्रृंगार के आधार की
काव्य को दरकार है श्रृंगार के आधार की
मझदार में पतवार की सृजनमय रसधार की , //
मदचूर होकर शब्द में भी भाव को जो बिसर दे
नाव है भटकी हुई ---- माझी बिना पतवार की //
तप रहें है शब्द लेकिन भावना से शून्य हैं
दो बूँद उसमे डालिए सब प्रेम मय बौछार की //
काव्य के इस युद्ध में योद्धा बहुत आये गए
अर्जुन खड़े हैं ध्वनि कहाँ गांडीव के टंकार की //
लेखनी को तीक्ष्ण करके लक्ष्य पर साधें मगर
पुरातन पर वार ना हो जो धरोहर संसार की //
काव्य का प्रारंभ बनी थी वेद की पहली ऋचा
नव सृजन हेतु लिखें पुनः लेखनी सुविचार की //............मनोज
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