रिश्तों में ये कैसी सीलन , प्रश्न चिन्ह बन बैठा जीवन
एहसासों के कैनवास पर , चित्रकार का कैसा चित्रण
कैसे भूल गए हो तुम वो परिपाटी निश्चल चाहत की
जिस परिपाटी के पालन को तत्पर थे तुम पहले दिन से
मैंने अपने अहंकार से जला दिया था जिन सपनो को
अपनी भीगी आँखों में वो रखे थे तुमने चुन चुन के ।।
आज अचानक कैसे सूखा करुणा का वो मानसरोवर
चाहत के हंसों का जिसमे होता था मदनोस्तव पावन ।।
जब भी हो उन्मुक्त सुनाई प्रेम भरी रूबाई तुमने
कितनी बार लेखनी मेरी लांघ गई थी मर्यादाएं
मेरा एकाकी जीवन जब आया था तेरी ड्योढ़ी पर
तुम स्वागत करने को आतुर थी फैला कर अपनी बाहें
आज वहीँ दो बाहें तेरी खोज रही है नया सहारा
जिन बाहों के आलिंगन में मैंने सौंपा अपना तन मन ।।
मनोज
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें